Thursday, September 10, 2020

Purushottam mas Mahatmyam With Hindi PDF पुरुषोत्तम माहात्म्य हिन्दी सहित

Purushottam mas Mahatmyam With Hindi PDF पुरुषोत्तम माहात्म्य हिन्दी सहित

Purushottam mas Mahatmyam With Hindi PDF 


पुरुषोत्तम माहात्म्य हिन्दी सहित 
Category      Mahatmyam
File,s   Source
File Size 11.01MB
All Pages       165
Language Hindi / Sanskrit

पुस्तक का कुछ भाग नीचे दिया गया है। 


दोहा-गोर गिरा गणराज श्री, हरि हर ब्रह्म मनाय ॥ श्रीपुरुषोत्तममासकी, भाषा लिखत बनाय ॥ १॥ ___श्रीगणेशाय नमः ॥ श्रीमद लम्बोदर ईशाननन्दन आनन्दके बढानेवाले आप विनरूपी वल्लोके नाश करनेको कुठार हो अशुभ दूर करते हो मैं आपकी शरणको प्राप्त होताहूँ ॥ १ ॥ मैं सद्गुरुके चरणकमलको प्राप्त होनाहूं जिनकी कालेशसे आनन्दित हो सज्जन प्रपंचरूपी सागरके पार सा होजाते हैं ॥ २॥ श्रीगणेशाय नमः॥ श्रीसरस्वत्यै नमः ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥
.. श्रीमलंबोदरेशाननंदनानंदवर्द्धन ॥ विनवल्लीकुठारेश त्वां प्रपद्ये महाशुभम् ॥१॥ वंदे सद्गुरुपादाज यत्कृपालेशनंदिताः ॥ जायते सज्जनाः सद्यः प्रपंचार्णवपारगाः॥२ कदाचित्पर्यटस्तीर्थयात्रामुदिश्य धार्मिकः ॥ सूतः पौराणिको व्यासशिष्यो धर्मार्थकोविदः ॥ ३॥ बहुतीर्थाम्भसि स्नात समगानेमिषालयम् ।। तत्रापश्यद्विजगणेष्टितं शोनकं प्रभुम् ॥ ४ ॥ मूर्तिमद्भिरिवादित्यर्वेदवेदांगपारगैः ॥ दिगंबरर्मुती ।। केशरं बुवाताशनैरपि ॥ ५॥ निराहारेनिष्कपटैस्तपसा दग्धकिल्बिषैः॥ आब्रह्मस्पृहणीयः सच्छ्रद्धापूतांतरात्मभिः ।। ६ आस्तिक्येब्रह्मसंदोहचिंतानिस्तीर्णहायनैः ॥ परिशंकितमार्तण्डेः शापानुग्रहकारकैः ॥ ७॥ बढ्चैः सामगर्दिव्येयजुषां गण पाठकः॥ आथर्वणैरुग्रतेजेः सर्वलोकनमस्कृतैः॥८॥ शासतजी ॥३॥
किसी समय तीर्थयात्राके उद्देशसे परमधार्मिक पुराणके जाननेवाले व्यास जीके शिष्य धर्म अर्थ काम मोक्षकी विद्यामें चतुर अनेक तीर्थोमें स्नान करके नैमिषारण्यमें आये, वहां ब्राह्मणोंके सहित कुलपति शौनकजीको देखा ॥ ४ ॥ 

सूर्यकी समान प्रकाश-18 समान वेदवेदांगके पारगामी दिगम्बर खुले केश जल और पवनके आहारवाले ॥५॥ निराहार रहनेवाले कपटसे रहित तपसे क्षीणपार ब्रह्मपर्यन्त। श्रेष्ठ श्रद्धासे पवित्र आत्मावाले ॥६॥ आस्तिक्य ब्रह्मज्ञानके पात्र चिन्तासे रहित सूर्यके शंकित करनेवाले शापानुग्रह करने में समर्थ ॥ ७ ॥ हा बहुत ऋचा अर्थात् ऋग्वेदके जाननेवाले साम गानेवाले दिव्य यजुर्वेदी गणाके पवित्र करनेवाले अथर्वज्ञाता उग्र तेजस्वी सब लोकोसे नमस्कृत ॥ ८ ॥ बहुत ऋचाओंके जाननेवाले वृद्धमम्मत भागकुलोत्पन्न देवताभोग इनकी ममान ॥ ९ ॥ दनो मतेही उन्होंने मन्य और जियान रविव। पिको प्रणाम किया और प्रीतिमे हाथ जोडे, वह सुन्दर लोचन मुन्दर रनन करने वाले थे ॥ 1 ॥ इन बाबी लाम गिनमान महाजिम्नाने । , उनको देख इस प्रकारकी प्रमन्नता पान की निन प्रकार मृतकारी शाण आजाते हैं। 73 || और हमे गहा कण्ठ हो मुनापने उन माजीने ए कहा; हे महाभाग मून ! आओ, तुम बडे नायरान हो ॥ १२ ॥ तुम अन्यन शुनील मोजो मेरे नेत्रगोनर हा हो ॥ 13 || तुम निकालतक 3. बद्दचं भार्गवमुनि शोनकं वृद्धसंमतम् ॥ शिष्यापेतं श्रीमद्भिगीर्वाणोरष वामवम् ॥ २ ॥ इंश्वाश ननामेनं मतो वि.नयवाञ्छचिः ॥ प्रयतःप्रांजलि प्रहः शिवाक शुभलोननः ॥ १०॥ तमालोक्य महातेजा बाहया लक्ष्म्या विराजितः ॥ स जातोऽतीव हृष्टात्मा प्राणान्प्राप्य यथा तनुः ॥ 1 ॥ हपगढ़दया वाना तमुवान मुनापरः ॥ पहि सूत महाभाग भाग्यवानास सांप्रतम् ॥ १२॥ अत्यंत शुभशलिम्त्वं यन्मे दृष्टोऽम्ति वे भवान् ॥ १३॥ चिरंजीव निरं पाहि गृणतो नः शुभानन ॥ तिष्ठस्वोबासने शुभ्रे महत्ते भूतपापक ॥ १३ ॥ श्लाघनीयोऽमि पूज्योडास व्यासशिन्यशिरोमणे ॥ कथयस्व कथामकां पृच्छामि त्वा हरिप्रियाम् ॥ १२ ॥ चितितां निरकालं में हृदये परिवर्तिनि ।। नास्ति त्वत्सदृशो भूमो संदेहतिमिरापरः ॥ १६॥ एवं पृष्टः शोनकन मृतभातुर्यभूषणः ॥ प्रत्युवाच प्रसत्रात्मा र विनयानतकन्धरः॥ १७॥ जीओ हमको मंसारसागरमे गार करो, आप ऊंचे आसनपर बेठिये यह हम आपके लिये प्रदान करने है ।। 12 ॥ आर प्रगंमाके योग्य व्यामागचा । सबके शिरोमणि हो मैं तुममे एक कथा पूछताई सो आप कहिये वह नागरणमम्बन्धी कथा है ॥ १५ ॥ यह बहुत कालमे निारी हुई मेरे हृदय :वर्तमान है आपके समान कोई अन्धकारका दूर करने वाला नहीं है ॥ १६ ॥ जय तुमके भूपण मृतजीमे हम प्रकार पृठागया तब वह प्रमान हो विनयसे शिर झुका कहने लगे ॥१७॥ सूतजी बोले-शौनकजी ! सुनिये जिस कारण मैं यहां आयाहूं; हे करुणानिधे ! आपहीके दर्शनकी अभिलाषा थी ॥१८॥ हे स्वामिन् ! प्रथम मैं पुष्करतीर्थको गयाथा वहां स्नान कर देवता पितरोंको तृप्त कर ॥१९॥ फिर पापनाशिनी यमुनाके तटपर गया। हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! वहांसे पुष्कल तीर्थको गया ॥ २० ॥ फिर गंगामें स्नान कर काशी गया वणिा कृष्णवेणी गण्डकी पुलहाश्रम ॥२३॥ धेनुमती रेवती SI सरस्वतीके तटमें तीन रात रहकर हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! फिर मैं गोदावरीको गया॥ २२ ॥ सीता अलकनंदा यवटोदा कृतमाला कावेरी निविध्या ताम्र-1
सूत उवाच ॥ शृणु विप्रेश वक्ष्याम यतोऽहमागतः प्रभो ॥ त्वदीयदर्शनालादपूरितः करुणानिधे ॥ १८॥ आदावई गतः.स्वामिस्तीर्थ पुष्करसंज्ञितम् ॥ नात्वाचम्य च संतर्य सुरानृषिगणान्पितॄन् ॥ १९ ॥ ततः प्रयातो यमुना. मापगां पापनाशिनीम् ॥ तस्यानु वै गतस्तीथं पुष्कलं भो द्विजेश्वर ॥२०॥ सुरनद्यामनुस्नातस्ततःकाशीमुपागतः ॥ वीणायां कृष्णवेणायां गण्डक्यां पुलहाश्रमे ॥२१॥ धेनुमत्यां तु वेत्यां ततः सरस्वतीतटे॥ त्रिरात्रमुपितो ब्रह्मस्ततो गोदावरी गतः ॥ २२॥ सीतामलकनंदां वा यवटोदामथो नदीम् ॥ कृतमालांच कावेरी निर्विध्यां ताम्रपर्णिकाम् ॥ ॥ २३ ॥ तापी वैहायसी नदां नर्मदा पापमोचनीम् ॥ पयोष्णी सुरतां शुभ्रामधःशोणानदद्वयम् ॥ २४ ॥ भंद्रां दृषद्वतीं विप्र तापसैरुपसेविताम् ॥ पापसंघान्नाशयित्वा ततश्चर्मण्वती नदीम् ॥ २५॥ ततःप्रयातः प्रयतः कल्याणी al.जंगदंबिकाम् ॥ सर्वाभयकरी देवी संसारभयनाशिनीम् ॥ २६ ॥ पर्णिका ॥ २३ ॥ तापी वैहायसी नंदा पापमोचनी नर्मदा पयोष्णी सुरता शुभा अधः दोनों शोणभद्र नद ॥ २४ ॥
हे विप्र ! भद्रा दृषद्वती जो तपस्वियोंसे सेवित रहती है इस प्रकार उसमें स्नान कर पापरहित हो चर्मण्यती नदीके तटपर आया ॥ २५ ॥ फिर वहांसे नियमित हो कल्याणी जग-MBI दम्बाके दर्शनको गया जो देवी सम्पूर्ण भय और संसारभय नाश करनेवाली है ॥ २६ ॥ 2. जगद्धात्री महामाया सुरेश्वरीको नमस्कार करके फिर सिद्धक्षेत्रमें आनकर प्राप्त हुआहूँ ॥ २७ ॥
 हे श्रेष्ठ ! इनके सिवाय और भी सिद्ध क्षेत्रोंमें गया फिर कुरुजांगल देशोंमें गया जहां भगवान् प्रभु ॥२८॥ व्यासपुत्र महातेजस्वी शुकदेवजी ब्रह्मरूप पापरहित प्राप्त हुए थे ॥ २९ ॥ जहां ॥ श्रीकृष्णके ध्यानमें मन लगाये सबके उपकारी राजोंमें शिरोमणि राजा परीक्षित् जन्ममरणकी निवृत्तिके निमित्त ॥ ३० ॥ वह महाबाहु राजा विरक्त होकर देहादि सम्पूर्ण वस्तुओंको मलकी समान मानता हुआ स्थित था॥३१ ॥ 
वहां अपनी इच्छासे घूमते हुए उसके अनुग्रह करनेको आये नमस्कृत्य जगद्धात्री महामायां सुरेश्वरीम् ॥ सिद्धक्षेत्रं सदा रम्यं प्राप्तवान्भुवि संस्तुतम् ॥ २७ ॥ एतेष्वन्येषु.तीर्थेषु... 'वजनागतवान्विभो ॥ कुरुजांगलकं देशं यत्रागाद्भगवान्प्रभुः ॥ २८॥ व्यासपुत्रो महातेजाः शुकदेवः प्रतापवान् ॥ ब्रह्मभूतो मुनिवरः श्रीमान्विगतकल्मषः॥ २९ ॥ श्रीकृष्णपदविन्यस्तमना भूतोपकारकः ॥ जन्ममृत्युनिवृत्त्यर्थं । राजा क्षत्राशरोमाणिः ॥३०॥ विरक्तस्य महाबाहोर्विष्णुरातस्य भूपतेः ॥ देहादि सकलं वस्तु मलभूतं तु यन्मते ॥ - 2 ॥ ३१ ॥ 
यदृच्छयागतस्तत्र तस्यानुग्रहकारणे॥ श्रुत्वा तमागतं दिव्यं मुनिभिः परिवारितम् ॥ ३२॥ गतोऽहमपि । तत्रैव संस्थितस्तदनुग्रहात् ॥ श्रुत्वा विष्णुकथास्तत्र भवसागरमोचनीः॥ ३३ ॥ चित्तं कृत्वा मनोधीर ऐहिकामुष्मिकां गतिम् ॥ निराकृत्य हरेः स्थानमंजसैव प्रपद्यते ॥३४॥ तत्रानेकाः कथाः श्रुत्वा ब्रह्मरातप्रसादतः ॥ गते परीक्षित स्थानमनावर्तनमुत्तमम् ॥ ३५॥ . ४. उन दिव्य महात्माओंको मुनियोंसे युक्त आया जान ॥३२॥ 
मैंभी वहां गया और उसके अनुग्रहसे स्थित हुआ वहां भवसागरसे छुडानेवाली विष्णुकी कथा सुनी ॥ ३३ ॥ जो मनुष्य एकान्त मनसे धरितायुक्त कथा सुनते हैं उनको उमयलोककी प्राप्ति होती है और पापरहित हो वह नारायणके ४. स्थानको प्राप्त होते हैं ॥३४॥ वहांशुकदेवजीके प्रसादसे अनेक कथाओंको श्रवण कर परीक्षित्के पुनरागमनरहित स्थानके प्राप्त होनेपर ॥ ३५॥ 
 कि जहां जाकर कोई शोच नहीं रहता मनीषी जिसकी अभिलाषा करते हैं वहां राजा गया; नारायणकी कथा सुननेमे यह गति हुई इसमें कुछ चित्र नहीं है ऐसा जानकर ॥ ३६ ॥ कि, एकही बार जिनका स्मरण करनेसे पातकोंके समूह नष्ट होजाते हैं जिससे फिर मनुष्यका जन्म नहीं होसकता है॥ ३७॥ फिर इस साधुसम्मत परीक्षितकी मुक्ति क्यों न होती है, हे ब्राह्मणो ! ऐसा विचारकर मैं आपके समीप ॥ ३८॥ यहां आनकर १६ प्राप्त हुआ हूं कि आप यहां यज्ञ कररहे हैं आपको देखकर प्रसन्न हुआ हूं अब मैं आपसे यह जाननेकी इच्छा करता हूं कि आपका क्या निश्चय यत्र गत्वा न शोचंति स्पृहयति माषिणः ॥ नैतच्चित्रं गात ज्ञात्वा हरिलीलाश्रुतेः किल ॥ ३६॥ 
सकृयन्नाम .. संस्मृत्य यावत्पातकसंततिम् ॥ दग्धुं शक्तो भवेत्कर्तुं जन्मनापिन शक्यते ॥ ३७॥ तत्कथं मुच्यते नायं परीक्षित्साधुसंमतः ॥ इति संचिंतयन् विप्राः सन्निधिं भवतायहम् ॥ ३८ ॥ प्राप्तवान्सत्रिणो ज्ञात्वा भवतः कलितो भवात् ॥ तदनुज्ञामथेच्छामि यत्कर्तास्यद्य निश्चितम् ॥ ३९ ॥ धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यन्मां स्मरथ सत्तमाः।। स्वल्पभाग्यतरं मूढं सर्वथा ज्ञानजल्पकम् ॥ ४० ॥ जातं च प्रतिलोमेन मूर्ख पंडितमानिनम् ॥ एवं चोक्त्वा ततो धीमान्वेदवेदांगपारगम् ॥४१॥ शौनक प्रत्युवाचेदं प्रहसञ्लक्ष्णया गिरा ॥ साधु पृष्टं महाभाग निष्पापोऽस्ति Pal भवान किल-॥ ४२ ॥ त्वत्समो नास्ति लोकेषु वेदव्यासगृहालयम् ॥ प्रश्नमेनं वदस्वाद्य यन्मे हदि चिरं स्थिरम् ॥४३॥ दी है ॥ ३९ ॥ 
हे श्रेष्ठ ! जो आप मुझे स्मरण करते हैं इस कारण मैं धन्य और अनुगृहीत हूं मैं स्वल्लभाग्ययुक्त मूढ और वृथा ज्ञानजल्पक हूं ॥ ४०॥ प्रतिलोमसे उत्पन्न मूर्ख और वृथा पंडितमानी हूं परम आप यह जानकर वह बुद्धिमान् वेदवेदांगके पारगामी ॥४१॥ शौनकजीमे हँसते हुए मनोहर वाणीसे बोले; हे महाभाग ! आपने भली बात पूछी है आप पापरहित हो ॥ ४२ ॥ आपकी समान लोकमें कोई नहीं है आप वेदव्यासके गृहरूप हो सो आप मेरा प्रश्न कहिये जो चिरकालसे भेरे हृदयमें स्थित है ॥ ४३ ॥ कन्सन्टकल 

0 comments: